पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१२०

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बवासपिलवोन श्रेष्ठ ! अधियज्ञ इस शरीरमें स्थित किंतु यज्ञद्वारा शुद्ध हुआ जीवस्वरूप है। टिप्पनी-तात्पर्य, अव्यक्त ब्रह्मसे लेकर नाशवान दृश्य पदार्थमात्र परमात्मा ही है और सब उसीकी कृति है । तब फिर मनुष्यप्राणी स्वयं कर्तापनका अभि- मान रखनेके बदले परमात्माका दास . बनकर सब कुछ उसे समर्पण क्यों न करे ? अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥५॥ अंतकालमें मुझे ही स्मरण करते-करते जो देह- त्याग करता है वह मेरे स्वरूपको पाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। यं यं वापि स्मरन्भाव त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।। ६ ।। अथवा तो हे कौंतेय ! नित्य जिस-जिस स्वरूपका ध्यान मनुष्य धरता है, उस-उस स्वरूपको अंतकालमें भी स्मरण करता हुआ वह देह छोड़ता है और इससे वह उस-उस स्वरूपको पाता है । ६ तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य मर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् इसलिए सदा मुझे स्मरण कर और जूझता रह; ५ ॥ ७॥