पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१२१

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पाठवां पपाय : अक्षरबायोम २०७ इस प्रकार मुझमें मन और बुद्धि रखनेसे अवश्य मुझे पावेगा। अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना। परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ ८॥ हे पार्थ ! चित्तको अभ्याससे स्थिर करके और कहीं न भागने देकर जो एकाग्र होता है वह दिव्य परमपुरुषको पाता है। ८ कवि पुराणमनुशासितार- मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप- मादित्यवर्ण परस्तात् ॥९॥ प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स त परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥१०॥ जो मनुष्य मृत्युकालमें अचल मनसे, भक्तिसे युक्त होकर और योगबलसे भुकुटीके बीच में अच्छी तरह प्राणको स्थापित करके सर्वज्ञ, पुरातन, नियंता, सूक्ष्मतम, सबके पालनहार, अचिंत्य, सूर्यके समान तेजस्वी, अज्ञानरूपी अंधकारसे पर स्वरूपका ठीक स्मरण करता है वह दिव्य परमपुरुषको पाता है । ९-१० तमसः