पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पाठयां मध्याय : मारवायोग नहीं है, जो भक्ति नहीं जानता बह चंद्रलोक अर्थात् क्षणिक लोकको पाकर फिर संसार-चक्रमें लौटता है। चंद्रके निजी ज्योति नहीं है। शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥२६॥ जगतमें ज्ञान और अज्ञानके ये दो परंपरासे चलते आये मार्ग माने गये हैं। एक अर्थात् ज्ञानमार्गसे मनुष्य मोक्ष पाता है और दूसरे अर्थात् अज्ञानमार्गसे उसे पुनर्जन्म प्राप्त होता है। नेते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन । तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥२७॥ हे पार्थ ! इन दोनों मार्गोका जाननेवाला कोई भी योगी मोहमें नहीं पड़ता। इसलिए हे अर्जुन ! तू सर्वदा योगयुक्त रहना। २७ टिप्पनी दोनों मागोंका जाननेवाला और सम- भाव रखनेवाला अंधकारका-अज्ञानका मार्ग नहीं पकड़ता, इसीका नाम है मोहमें न पड़ना । वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् । अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाबम् ॥२८॥ यह वस्तु जान लेनेके बाद वेदमें, यज्ञमें, तपमें और