मंग्रह युद्ध सर्वमान्य वस्तु होनेके कारण गीताकारको ऐसे युद्धका उदाहरण लेते संकोच नहीं हुआ और न होना चाहिए था। परंतु फलत्यागके महत्त्वका अंदाजा करते हुए गीताकारके मनमें क्या विचार थे, उसने अहिंसाकी मर्यादा कहां निश्चित की थी, इसपर हमें विचार करनेकी मावश्यकता नहीं रहती। कवि महत्वके सिद्धांतोंको संसारके संमुख उपस्थित करता है, इसके यह मानी नहीं होते कि वह सदा अपने उपस्थित किये हुए सिद्धांतोंका महत्त्व पूर्णरूपसे पहचानता है या पहचाननेके बाद समूचेको भाषामें रख सकता है। इसमें काव्यकी और कविकी महिमा है। कविके अर्थका अंत ही नही है । जैसे मनुष्यका, उसी प्रकार महावाक्योंके अर्थका विकास होता ही रहता है। भाषामोंके इतिहाससे हमें मालूम होता है कि अनेक महान् शब्दोंके अर्थ नित्य नये होते रहे हैं। यही बात गीताके अर्थके संबंधमें भी है । गीताकारने स्वयं महान् रूढ शब्दोंके अर्थका विस्तार किया है । गीताको अपरी दृष्टिसे देखने- पर भी यह बात मालूम हो जाती है । गीतायुगके पहले कदाचित् यज्ञमें पशु- हिंसा मान्य रही हो। गीताके यज्ञमें उसकी कहीं गंधतक नहीं है। उसमें तो जपयज्ञ यज्ञोंका राजा है। तीसरा अध्याय बतलाता है कि यज्ञका अर्थ है मुख्यरूपसे परोपकारके लिए शरीरका उपयोग । तीसरा और चौथा अध्याय मिलाकर दूसरी व्याख्याएं भी निकाली जा सकती हैं; पर पशु- हिंसा नहीं निकाली जा सकती। वही बात गीताके संन्यासके अर्थके संबंध है । कर्ममात्रका त्याग गीताके संन्यासको भाता ही नहीं। गीता- का संन्यासी प्रतिकर्मी है तथापि अति-अकर्मी है । इस प्रकार गीताकारने महान् शब्दोंका व्यापक अर्थ करके अपनी भाषाका भी व्यापक अर्थ करना हमें सिखाया है । गीताकारकी भाषाके मक्षरोसे यह बात भले ही निकलती हो कि संपूर्ण कर्मफलत्यागीद्वारा भौतिक युद्ध हो सकता है, परंतु गीताकी शिक्षाको पूर्णरूपसे अमलमें लानेका ४० वर्षतक सतत प्रयल करनेपर
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