पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१४

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सोलह - मुझे तो नम्रतापूर्वक ऐसा जान पडा है कि सत्य और अहिंसाका पूर्णरूपसे पालन किये बिना संपूर्ण कर्मफलत्याग मनुष्यके लिए असंभव है। गीता सूत्ररथ नहीं है। गीता एक महान धर्मकाव्य है। उसमें जितना गहरे उतरिए उतने ही उसमेंसे नये और सुदर अर्थ लीजिए। गीता जनसमाजके लिए है, उसमें एक ही बातको अनेक प्रकारसे कहा है। अतः गीतामें माये हुए महाशब्दोंका अर्थ युग-युगमें बदलता और विस्तृत होता रहेगा। गीताका मूलमंत्र कभी नहीं बदल सकता। वह मत्र जिस रीतिसे सिद्ध किया जा सके उस रीतिसे जिज्ञासु चाहे जो अर्थ कर सकता है। गीता विधिनिषेध बतलानेवाली भी नही है । एकके लिए जो विहित होता है, वही दूसरेके लिए निषिद्ध हो सकता है। एक काल या एक देशमें जो विहित होता है, वह दूसरे कालमें, दूसरे देशमें निषिद्ध हो सकता है। निषिद्ध केवल फलासक्ति है, विहित है अनासक्ति । गोतामें ज्ञानकी महिमा सुरक्षित है, तथापि गीता बुद्धिगम्य नही है, वह हृदयगम्य है । मतः वह अश्रद्धालुके लिए नही है। गीताकारने ही कहा है- "जो तपस्वी नही है, जो भक्त नही है, जो सुनना नहीं चाहता और जो मेरा द्वेष करता है, उससे यह (शान) तू कभी न कहना।" १८१६७ "परंतु यह परमगुह्य ज्ञान जो मेरे भक्तोंको देगा, वह मेरी परमभक्ति करनेके कारण निःसंदेह मुझे ही पावेगा।" १८१६८ "और जो मनुष्य देषरहित होकर श्रद्धापूर्वक केवल सुनेगा वह भी मुक्त होकर पुण्यवान जहां बसते है उस शुभ लोकको पावेगा।" १८७१ (कौसानी, हिमालय) सोमवार --मो० भाषाढ़ कृष्ण २, १९८६ ता०२४-६-२६ o क० गांधी