पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१३३

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भवां मध्याय : राबविचारावगुहायोग और दूसरे लोग अद्वैतरूपसे या द्वैतरूपसे अथवा बहुरूपसे सब कहीं रहनेवाले मुझको ज्ञानद्वारा पूजसे यज्ञः अहं ऋतुरहं स्वधाहमहमौषधम् । मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥१६॥ यज्ञका संकल्प में हूं, यज्ञ मैं हूं, यज्ञद्वारा पितरोंका आधार मैं हूं, यज्ञकी वनस्पति मैं हूं, मंत्र मैं हूं, आहुति मैं हूं, अग्नि में हूं और हवन-द्रव्य मैं हूं। १६ पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥१७॥ इस जगतका पिता मैं, माता मैं, धारण करनेवाला मैं, पितामह मैं, जानने योग्य मैं, पवित्र ॐकार मैं, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूं। १७ गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥१८॥ गति में, पोषक में, प्रभु में, साक्षी मैं, निवास में, आश्रय में, हितैषी में, उत्पति में, नाश में, स्थिति में, भंडार मैं और अव्यय बीज भी मैं हूं। १८ तपाम्यहमहं वर्ष निगृहाम्युत्सृजामि च । अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥१९॥ धूप में देता हूं, वर्षाको मैं ही रोक रखता और -