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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१३५

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नवां अध्याय : राबविचाराबायोग जन्ममरणके चक्कर काटा करते हैं। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥२२॥ जो लोग अनन्यभावसे मेरा चिंतन करते हुए मुझे भजते हैं, उन नित्य मुझमें ही रत रहनेवालोंके योग-क्षेमका भार मैं उठाता हूं। २२ टिप्पती-इस प्रकार योगीको पहचाननेके तीन सुंदर लक्षण है-समत्व, कर्ममें कौशल, अनन्यभक्ति । ये तीनों एक-दूसरेमें ओतप्रोत होने चाहिए। भक्तिके बिना समत्व नहीं मिलता, समत्वके बिना भक्ति नहीं मिलतो और कर्म-कौशलके बिना भक्ति तथा समत्वका आभासमात्र होनेका भय है। योग अर्थात् अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करना और क्षेम अर्थात् प्राप्त वस्तुको संभालकर रखना। येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।।२३।। और हे कौंतेय ! जो श्रद्धापूर्वक दूसरे देवताको भजते हैं, वे भी भले ही विधिरहित भनें, मुझे ही २३ टिप्पी-विधिरहित अर्थात् अज्ञानवश, मुझे एक निरंजन निराकारको न जानकर । भजते हैं।