पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१३६

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अनासक्तियोग गिरते हैं। अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥२४॥ जो मैं ही सब यज्ञोंका भोगनेवाला स्वामी हैं, उसे वे सच्चे स्वरूपमें नहीं पहचानते, इसलिए वे २४ यान्ति देवव्रता देवान् पितन्यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥२५॥ देवताओंका पूजन करनेवाले देवलोकोंको पाते हैं, पितरोंका पूजन करनेवाले पितृलोकको पाते हैं, भूत- प्रेतादिको पूजनेवाले उन लोकोंको पाते हैं और मुझे भजनेवाले मुझे पाते हैं। २५ पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥२६॥ पत्र, फूल, फल या जल जो मुझे भक्तिपूर्वक अर्पण करता है वह प्रयत्नशील मनुष्यद्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित किया हुआ मैं सेवन करता हूं। २६ टिप्पती-तात्पर्य यह कि ईश्वरप्रीत्यर्थ जो कुछ सेवाभावसे दिया जाता है, उसका स्वीकार उस प्राणीमें रहनेवाले अंतर्यामीरूपसे भगवान ही ग्रहण करते हैं ।