पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१३८

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१२४ मनासक्तियोम क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति । कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥३१॥ वह तुरंत धर्मात्मा हो जाता है और निरंतर शांति पाता है। हे कौंतेय ! तू निश्चयपूर्वक जानना कि मेरे भक्तका कभी नाश नहीं होता। मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा- स्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥३२॥ फिर हे पार्थ ! जो पापयोनि हों वे भी और स्त्रियां, वैश्य तथा शूद्र जो मेरा आश्रय ग्रहण करते हैं, वे परमगति पाते हैं। ३२ किं पुनर्बाह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा । अनित्यमसुखं लोकमिम प्राप्य भजस्व माम् ॥३३॥ तब फिर पुण्यवान ब्राह्मण और राजर्षि जो मेरे भक्त हैं, उनका तो कहना ही क्या है ? इसलिए इस अनित्य और सुखरहित लोकमें जन्मकर तू मुझे भज। ३३ भव मद्भक्तो मद्याजी मा नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥३४॥ मुझमें मन लगा, मेरा भक्त बन, मेरे निमित्त यज्ञ कर, मुझे नमस्कार कर, इससे मुझमें परायण होकर मन्मना