यत् । नया अभ्याय : राबविचाराबमुहयोग यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥२७॥ इसलिए हे कौंतेय ! जो करे, जो खाय, जो हवनमें होमे, जो तू दानमें दे, जो तप करे, वह सब मुझे अर्पण करके करना। २७ शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥२८॥ इससे तू शुभाशुभ फल देनेवाले कर्मबंधनसे छूट जायगा और फलत्यागरूपी समत्वको पाकर, जन्ममरण- से मुक्त होकर मुझे पावेगा। २८ समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥२९॥ • सब प्राणियोंमें मैं समभावसे रहता हूं। मुझे कोई अप्रिय या प्रिय नहीं है। जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूं। २९ अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥३०॥ भारी दुराचारी भी यदि अनन्यभावसे मुझे भजे तो उसे साधु हुआ ही मानना चाहिए; क्योंकि अब उसका अच्छा संकल्प है। ३० टिप्पनी--क्योंकि अनन्यभक्ति दुराचारको शांत कर देती है।
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