पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१४२

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पाते हैं। १२६ मनासक्तियोग प्रेमसे भजनेवालोंको में ज्ञान देता हूं और उससे वे मुझे १० तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥११॥ उनपर दया करके उनके हृदयमें स्थित मैं ज्ञानरूपी प्रकाशमय दीपकसे उनके अज्ञानरूपी अंधकारका नाश करता हूं। अर्जुन उवाच परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परम भवान् । पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।।१२।। आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिनारदस्तथा। असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥१३।। अर्जुन बोले- हे भगवान! आप परमब्रह्म हैं, परमधाम हैं, परम- पवित्र हैं। समस्त ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल और व्यास आपको अविनाशी, दिव्यपुरुष, आदिदेव अजन्मा, ईश्वररूप मानते हैं और आप स्वयं भी वैसा ही कहते हैं। १२-१३ सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव । न हि ते भगवन्व्यक्ति विदुर्देवा न दानवाः ॥१४॥ 1