पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१४३

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हे केशव ! आप जो कहते हैं उसे मैं सत्य मानता हूं। हे भगवान ! आपके स्वरूपको न देव जानते है न दानव । स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । भूतभावन भूतेश ' देवदेव जगत्पते ॥१५॥ हे पुरुषोत्तम ! हे जीवोंके पिता ! हे जीवेश्वर ! हे देवोंके देव ! हे जगतके स्वामी ! आप स्वयं ही अपनेद्वारा अपनेको जानते हैं । वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः । याभिविभूतिभिर्लोका- निमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥१६॥ जिन विभूतियोंके द्वारा इन लोकोंमें आप व्याप रहे हैं, अपनी वह दिव्य विभूतियां पूरी-पूरी मुझसे आपको कहनी चाहिए। कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तयन् । केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥१७॥ हे योगिन् ! आपका नित्य चिंतन करते-करते आपको मैं कैसे पहचान सकता हूं ? हे भगवान् ! किस- किस रूपमें आपका चिंतन करना चाहिए? १७ विस्तरेणात्मनो योगं विभूति च जनार्दन । भूयः कषय तृप्तिहि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥१८॥