पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१४९

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ससवा मन्याष : विभूतियोग दो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् । मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥३८॥ शासकका दंड मैं हूं, जय चाहनेवालोंकी नीति मैं हूं, गुह्य बातोंमें मौन मैं हूं और ज्ञानवानका ज्ञान मैं हूं। ३८ यच्चापि सर्वभूतानां बीज तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥३९।। हे अर्जुन ! समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका कारण मैं हूं। जो कुछ स्थावर या जंगम है, वह मेरे बिना नहीं ३९ नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप । एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतविस्तरो मया ॥४०॥ हे परंतप ! मेरी दिव्य विभूतियोंका अंत ही नहीं है। विभूतियोंका विस्तार मैंने केवल दृष्टांतरूपसे ही बतलाया है। यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमर्जितमेव तत्तदेवावगच्छ तेजोऽशसंभवम् ॥४१॥ जो कुछ भी विभूतिमान, लक्ष्मीवान या प्रभावशाली है, उस-उसको मेरे तेजके अंशसे ही हुआ समझ । ४१ बहुनतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥४२॥ ४० वा। मम अथवा