ग्वारहवां अध्याय : विश्वासानयोग आपको में अनेक हाथ, उदर, मुख और नेत्रयुक्त अनंत रूपवाला देखता हूं। आपका अंत नहीं है, न मध्य है, न आपका आदि है। हे विश्वेश्वर! आपके विश्व- रुपका मैं दर्शन कर रहा हूं। किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् । पश्यामि त्वां दुनिरीक्ष्यं समन्ता- द्दीप्तानलाकंद्युतिमप्रमेयम् ॥१७॥ मुकुटधारी, गदाधारी, चक्रधारी, तेजके पुंज, सर्वत्र जगमगाती ज्योतिवाले, साथ ही कठिनाईसे दिखाई देनेवाले, अपरिमित और प्रज्वलित अग्नि किंवा सूर्यके समान सभी दिशाओंमें देदीप्यमान आपको में देख १७ त्वमक्षरं परम बेदितव्यं विश्वस्य परं निघानम् । शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥१८॥ आपको मैं जाननेयोग्य परम अक्षररूप, इस जगत- का अंतिम आधार, सनातन धर्मका अविनाशी रक्षक और सनातन पुरुष मानता हूं। १८ अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य- मनन्तवाहुं शशिसूर्यनेत्रम् । त्वमस्य त्वमव्ययः
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