पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१५६

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अनासक्तियोम पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥१९॥ जिसका आदि, मध्य या अंत नहीं है, जिसकी शक्ति अनंत है, जिसके अनंत बाहु हैं, जिसके सूर्यचंद्ररूपी नेत्र हैं, जिसका मुख प्रज्वलित अग्निके समान है और जो अपने तेजसे इस जगतको तपा रहा है, ऐसे आपको में देख रहा हूं। द्यावापृथिव्योरिदमन्तर हि व्याप्तं त्वयकेन दिशश्च सर्वाः । दष्टवाद्भत रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रय प्रव्यथित महात्मन् ॥२०॥ आकाश और पृथ्वीके बीचके इस अंतरमें और समस्त दिशाओंमें आप ही अकेले व्याप्त हो रहे हैं। हे महात्मन् ! यह आपका अद्भुत उग्ररूप देखकर तीनों लोक थरथराते हैं। २० अमी हि त्वां सरसघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति । स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः स्तुवन्ति त्वा स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥२१॥ और यह देवोंका संघ आपमें प्रवेश कर रहा है। भयभीत हुए कितने ही हाथ जोड़कर आपका स्तवन कर रहे हैं। महर्षि और सिद्धोंका समुदाय ' (जगतक)