पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१६३

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ग्यारहवां अध्याय : विपरामयोग ! कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिक। अनन्त देवेश जमनिवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥३७॥ हे महात्मन् ! वे आपको क्यों नमस्कार न करें ? आप ब्रह्मासे भी बड़े आदिकर्ता हैं । हे अनंत, हे देवेश, हे जमनिवास ! आप अक्षर हैं, सत् हैं, असत् हैं और इससे जो परे है वह भी आप ही हैं। त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण- स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम विश्वमनन्तरूप ॥३८॥ आप आदिदेव हैं। आप पुराण-पुरुष हैं। आप इस विश्वके परम आश्रयस्थान हैं। आप जाननेवाले हैं और जानने योग्य हैं। आप परमधाम हैं । हे अनंतरूप ! इस जगतमें आप व्याप्त हो रहे हैं। ३८ वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥३९॥ वायु, यम, अग्नि, वरुण, चंद्र, प्रजापति, प्रपितामह आप ही हैं। आपको हजारों बार नमस्कार पहुंचे और त्वया ततं .