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ग्यारहवां मनाव: विरूपानयोग न आदिरूप दिखाया है। यह तेरे सिवा और किसीने पहले नहीं देखा है। बेदयशाध्ययनैर्न दान- न च क्रियाभिर्न तपोभिरुषः । एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥४८॥ कुरुप्रवीर ! वेदाभ्यास से, यज्ञसे, अन्यान्य शास्त्रोंके अध्ययनसे, दानसे, क्रियाओंसे, या उन तपोंसे तेरे सिवा दूसरा कोई यह मेरा रूप देखनेमें समर्थ नहीं है। ४८ माते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं धोरमीदड ममेदम् । व्यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥४९॥ यह मेरा विकराल रूप देखकर तू घबरा मत, मोहमें मत पड़ । डर छोड़कर शांतचित्त हो और यह मेरा परिचित रूप फिर देख । संजय उवाच इत्यर्जुनं ! वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः । आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥५०॥