पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- ध्यानाकर्मफलत्याग- स्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२।। अभ्यासमार्गसे ज्ञानमार्ग श्रेयस्कर है । ज्ञानमार्गसे ध्यानमार्ग विशेष है और ध्यानमार्गसे कर्मफलत्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि इस त्यागके अंतमें तुरंत शांति ही होती है। १२ टिप्पकी--अभ्यास अर्थात् चित्तवृत्तिनिरोधकी साधना; ज्ञान अर्थात् श्रवण-मननादि; ध्यान अर्थात् उपासना । इनके फलस्वरूप यदि कर्मफलत्याग न दिखाई दे तो वह अभ्यास अभ्यास नहीं है, ज्ञान ज्ञान नहीं है और ध्यान ध्यान नहीं है । अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥१३॥ संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स में प्रियः ॥१४॥ जो प्राणीमात्रके प्रति द्वेषरहित, सबका मित्र, दयावान, ममतारहित, अहंकाररहित,सुख-दुःखमें समान, क्षमावान, सदा संतोषी, योगयुक्त, इंद्रियनिग्रही और दृढनिश्चयी है और मुझमें जिसने अपनी बुद्धि और मन अर्पणकर दिया है, ऐसा मेरा भक्त मुझे प्रिय है। १३-१४