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तेव्हा सम्यानपावभावोन लिप्त नहीं होता, वैसे सब देहमें रहनेवाला आत्मा लिप्त नहीं होता। ३२ यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । क्षेत्र क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥३३॥ जैसे एक ही सूर्य इस समूचे जगतको प्रकाश देता है, वैसे हे भारत ! क्षेत्री समूचे क्षेत्रको प्रकाशित करता है। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ।।३४॥ जो ज्ञानचक्षुद्वारा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका भेद और प्रकृतिके बंधनसे प्राणियोंकी मुक्ति कैसे होती है यह जानता है वह ब्रह्मको पाता है । तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद अर्थात् ब्रह्म- विद्यांतर्गत योगशास्त्रके श्रीकृष्णार्जुनसंवादका क्षेत्र- क्षेत्रज्ञविभागयोग' नामक तेरहवां अध्याय ।