पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१९६

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अनासक्तियोग वरन् तीनों स्थितियोंमें वह एक समान बर्तता है। पत्थर और गुणातीतमें अंतर यह है कि गुणातीत चेतनमय है और उसने ज्ञानपूर्वक गुणोंके परिणामों-, का-स्पशंका त्याग किया है और जड़-पत्थर-सा बन गया है। पत्थर गुणोंका अर्थात् प्रकृतिके कार्योंका साक्षी है, पर कर्ता नहीं है, वैसे ज्ञानी उसका साक्षी रहता है, कर्ता नहीं रह जाता। ऐसे ज्ञानीके संबंध यह कल्पना की जा सकती है कि वह २३वें श्लोकके कथनानुसार 'गुण अपना काम किया करते हैं। यह मानता हुआ विचलित नहीं होता और अचल रहता है, उदासीन-सा रहता है--अडिग रहता है । यह स्थिति गुणोंमें तन्मय हुए हम लोग धैर्यपूर्वक केवल कल्पना करके समझ सकते हैं, अनुभव नहीं कर सकते। परंतु उस कल्पनाको दृष्टिमें रखकर हम 'मैं' पनेको दिन-दिन घटाते जायं तो अंतमें गुणातीतकी अवस्थाके समीप पहुंचकर उसकी झांकी कर सकते हैं । गुणा- तीत अपनी स्थितिका अनुभव करता है, वर्णन नहीं कर सकता । जो वर्णन कर सकता है वह गुणातीत नहीं है, क्योंकि उसमें अहंभाव मौजूद है। जिसे सब लोग सहजमें अनुभव कर सकते हैं वह शांति, प्रकाश, . 'धांधल'--प्रवृत्ति और जड़ता-मोह है।