पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१९७

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बोहवा मध्याव : पुणविमानयोग गीतामें स्थान-स्थानपर इसे स्पष्ट किया है कि सात्त्वि- कता गुणातीतके समीप-से-समीपकी स्थिति है । इसलिए मनुष्यमात्रका प्रयत्न सत्त्वगुणके विकास करनेका है। यह विश्वास रखे कि उसे गुणातीतता अवश्य प्राप्त होगी। मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। स गुणान्समतीत्यतान्ब्रह्मभयाय जो एकनिष्ठ भक्तियोगद्वारा मुझे सेता है वह इन गुणोंको पार करके ब्रह्मरूप बनने योग्य होता है। २६ ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यकान्तिकस्य च ॥२७॥ और ब्रह्मकी स्थिति में ही हूं, शाश्वत मोक्षकी स्थिति में हूं। वैसे ही सनातन धर्मकी और उत्तम सुखकी स्थिति भी मैं ही हूं। २७ कल्पते ॥२६॥ ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद अर्थात् ब्रह्म- विद्यांतर्गत योगशास्त्रके श्रीकृष्णार्जुनसंवादका 'गुण- त्रयविभागयोग' नामक चौदहवां अध्याय ।