मनासतियोग मनका आश्रय लेकर विषयोंका सेवन करता है। ९ टिप्पणी-यहां 'विषय' शब्दका अर्थ बीभत्स विलास नहीं है, बल्कि प्रत्येक इंद्रियकी स्वाभाविक क्रिया है, जैसे आंखका विषय है देखना, कानका सुनना, जीभका चखना । ये क्रियाएं जब विकारवाली, अहं- भाव वाली होती है तब दूषित-बीभत्स ठहरती हैं। जब निर्विकार होती हैं तब वे निर्दोष हैं। बच्चा आंखसे देखता या हाथसे छूता हुआ विकार नहीं पाता, इसलिए नीचेके श्लोकमें कहते हैं- उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् । विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥१०॥ (शरीरका) त्याग करनेवाले या उसमें रहनेवाले अथवा गुणोंका आश्रय लेकर भोग भोगनेवालेको (इस अंशरूपी ईश्वरको), मूर्ख नहीं देखते, किंतु दिव्यचक्षु ज्ञानी देखते हैं। १० यतन्तो योगिनश्चनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥११॥ यत्न करते हुए योगीजन अपने में स्थित (इस ईश्वर) को देखते हैं। जिन्होंने आत्म-शुद्धि नहीं की है, ऐसे मूढजन यत्न करते हुए भी इसे नहीं पह- चानते।
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