पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२०४

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मनासचिलयोग प्राण और अपान वायुद्वारा में चार प्रकारका मन्त्र पचाता हूं। १४ सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो भत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥१५॥ -सबके हृदयोंमें अधिष्ठित मेरेद्वारा स्मृति, शान और उनका अभाव होता है। समस्त वेदोंद्वारा जानने योग्य मैं ही हूं, वेदोंका जाननेवाला में हूं, वेदांतका प्रकट करनेवाला भी मैं ही हूं। १५ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१६॥ इस लोकमें क्षर अर्थात् नाशवान और अक्षर अर्थात् अविनाशी दो पुरुष हैं। भूतमात्र क्षर हैं और उनमें जो स्थिर रहनेवाला अंतर्यामी है वह अक्षर कहलाता है। पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥१७॥ इसके सिवा उत्तम पुरुष और है। वह परमात्मा कहलाता है। यह अव्यय ईश्वर तीनों लोकमें प्रवेश करके उनका पोषण करता है । उत्तमः