पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२०५

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चोत्तमः। पहला अम्पाय : पुल्लोषमयोप यस्मात्मरमतीतोऽहमारादपि अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥१८॥ क्योंकि मैं क्षरसे पर और अक्षरसे भी उत्तम हूं, इसलिए वेदों और लोकोंमें पुरुषोत्तम नामसे प्रख्यात हूं। यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् । स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥१९॥ हे भारत ! मोहरहित होकर मुझ पुरुषोत्तमको इस प्रकार जो जानता है वह सब जानता है और मुझे पूर्णभावसे भजता है। इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥२०॥ हे अनघ ! यह गुह्य-से-गुह्य शास्त्र मैंने तुझसे कहा । हे भारत ! इसे जानकर मनुष्यको चाहिए कि वह बुद्धिमान बने और अपना जीवन सफल करे । २० ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद अर्थात् ब्रह्म- विद्यांतर्गत योगशास्त्रके श्रीकृष्णार्जुनसंवादका 'पुरुषो- तमयोग' नामक पंद्रहवां अध्याय ।