पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२०८

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. प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः । न सोचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।।७।। आसुर लोग यह नहीं जानते कि प्रवृत्ति क्या है, निवृत्ति क्या है । वैसे ही उन्हें शौचका, आचारका और सत्यका भान नहीं है। असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहतूकम् ॥ ८॥ वे कहते हैं, जगत असत्य निराधार और ईश्वर- रहित है। केवल नर-मादाके संबंधसे हुआ है। उसमें विषय-भोगके सिवा और क्या हेतु हो सकता है ? ८ एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः । प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥९॥ भयंकर काम करनेवाले, मंदमति, दुष्टगण इस अभिप्रायको पकड़े हुए जगतके शत्रु, उसके नाशके लिए उत्पन्न होते हैं। काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः । मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥१०॥ तृप्त न होनेवाली कामनाओंसे भरपूर, दंभी, मानी, मदांध, अशुभ निश्चयवाले मोहसे दुष्ट इच्छाएं ग्रहण करके प्रवृत्त होते हैं। चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः । कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥११॥ ९