पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सोलहवां अध्याय : शरमविकागबोल माशापाशशर्बद्धाः कामक्रोषपरायणाः। ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्यसञ्चवान् ॥१२॥ प्रलयपर्यंत अंत ही न होनेवाली ऐसी अपरिमित चिंताका आश्रय लेकर, कामोंके परमभोगी, 'भोग ही सर्वस्व है', ऐसा निश्चय करनेवाले, सैकड़ों आशाबोंके जालमें फंसे हुए, कामी, क्रोधी, विषयभोगके लिए अन्यायपूर्वक धन-संचयकी चाह रखते हैं। ११.१२ इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ।।१३।। असो मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥१४॥ आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥१५॥ अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः । प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेशुचौ ॥१६॥ आज मैंने यह पाया, यह मनोरथ (अब) पूरा करूंगा; इतना धन मेरे पास है, फिर कल इतना और मेरा हो जायगा; इस शत्रुको तो मारा, दूसरेको भी मारूंगा; मैं सर्वसंपन्न हूं, भोगी हूं, सिद्ध हूं, बलवान हूं, सुखी हूं; में श्रीमान् हूं, कुलीन हूं, मेरे समान दूसरा मया।