९ और वे दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करनेवाले होते हैं। यातयाम गतरसं पूति पर्युषितं च यत् । उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥१०॥ पहरभरसे पड़ा हुआ, नीरस, दुर्गधित, बासी, जूठा, अपवित्र भोजन तामस लोगोंको प्रिय होता १० अफलाकारक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥११॥ जिसमें फलकी इच्छा नहीं है, जो विधिपूर्वक कर्तव्य समझकर, मनको उसमें पिरोकर होता है वह यज्ञ सात्त्विक है। ११ अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् । इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥१२॥ हे भरतश्रेष्ठ ! जो फलके उद्देश्यसे और दंभसे होता है उस यज्ञको राजसी जान । १२ विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् । श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं जिसमें विधि नहीं है, अन्नकी उत्पत्ति नहीं है, मंत्र नहीं है, त्याग नहीं है, श्रद्धा नहीं है, उस यज्ञको बुद्धि- मान लोग तामस यज्ञ कहते हैं। परिचक्षते ॥१३॥
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