सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गत्यक्त्वा फलानि । कर्तव्यानीति में पार्य निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ ६॥ हे पार्थ ! ये कर्म भी आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करके करने चाहिए, ऐसा मेरा निश्चित उत्तम अभिप्राय है। ६ नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपयते । मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥ ७ ॥ नियत कर्मका त्याग उचित नहीं है। मोहके वश होकर उसका त्याग किया जाय तो वह त्याग तामस माना जाता है। दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्यजेत् । स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥८॥ दुःखकारक समझकर कायाकष्टके भयसे जो कर्म- का त्याग करता है वह राजस त्याग है और इससे उसे त्यागका फल नहीं मिलता। कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन । सङ्गत्यक्त्वा फलं चैव स त्यागःसात्त्विको मतः ॥ ९॥ हे अर्जुन ! करना चाहिए, ऐसा समझकर जो नियत कर्म संग और फलको त्यागकर किया जाता है वह त्याग ही सात्त्विक माना गया है। ९ न वेष्टपकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते । त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥१०॥ १४ ८