२९६ जो बुद्धि धर्म-अधर्म और कार्य-अकायका विवेक गलत ढंगसे करती है, वह बुद्धि, हे पार्थ ! राजसी है। अधर्म धर्ममिति · या मन्यते तमसावृता । सर्वार्थाविपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥३२॥ हे पार्थ! जो बुद्धि अंधकारसे घिरी हुई है, अधर्म- को धर्म मानती है और सब बातें उलटी ही देखती है वह तामसी है। ३२ धुत्या यया धारयते - मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः । योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥३३॥ हे पार्थ ! जिस एकनिष्ठ धृतिसे मनुष्य मन, प्राण और इंद्रियोंकी क्रियाको साम्यबुद्धिसे धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है। ३३ यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन । प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षीतिः सा पार्थ राजसी ॥३४॥ हे पार्थ ! जिस धृतिसे मनुष्य फलाकांक्षी होकर धर्म, काम और अर्थको आसक्तिपूर्वक धारण करता है वह धृति राजसी है। ३४ यया स्वप्नं मयं शोक विषादं मदमेव च। न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्ष तामसीं ॥३५॥
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