२१२ भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः । ततोमांतत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।।५।। में कैसा और कौन हूं इसे भक्तिद्वारा वह यथार्थ जानता है और इस प्रकार मुझे यथार्थ जानकर मुझमें प्रवेश करता है। ५५ सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्यपाश्रयः । मत्प्रसादादवाप्नोति. शाश्वतं पदमव्ययम् ॥५६॥ मेरा आश्रय ग्रहण करनेवाला सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपासे शाश्वत, अव्ययपदको पाता है। ५६ चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः । बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव ॥५७।। मनसे सब कर्मोको मुझमें अर्पण करके, मुझमें परायण होकर, विवेकबुद्धिका आश्रय लेकर निरंतर मुझमें चित्त लगा। ५७ मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि । अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनरक्ष्यसि ॥५॥ मुझमें चित्त लगानेपर कठिनाइयोंके समस्त पहाड़- को मेरी कृपासे पार कर जायगा, किंतु यदि अहंकारके वश होकर मेरी न सुनेगा तो नाश हो जायगा। ५८ यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे । मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥५९
पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२३६
दिखावट