पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२४

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अनासक्तियोम मुझे ये मार डालें अथवा मुझे तीनों लोकका राज्य मिले तो भी, हे मधुसूदन ! मैं उन्हें मारना नहीं चाहता। तो फिर एक जमीनके टुकड़ेके लिए कैसे + मारूं? निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन । पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वंतानाततायिनः ॥३६॥ हे जनार्दन ! धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारकर मुझे क्या आनंद होगा ? इन आततायियोंको भी मारकर हमें पाप ही लगेगा। तस्मानार्हा वयं हन्तु धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् । स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥३७।। इससे हे माधव ! यह उचित नहीं कि अपने ही बांधव धृतराष्ट्के पुत्रोंको हम मारें। स्वजनको ही मारकर कैसे सुखी हो सकते है ? यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥३८॥ कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मानिवतितुम् । कुलक्षयकृत दोष प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥३९॥ लोभसे जिनके चित्त मलिन हो गये हैं वे कुलनाशसे होनेवाले दोषको और मित्रद्रोहके पापको भले ही न देख सकें, परंतु हे जनार्दन ! कुलनाशसे होनेवाले दोषको सम-