पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/३१

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दूसरा प्राध्याय : साल्पयोग १७ - लमुवाच हृषोकेशः प्रहसन्निव भास्त । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥१०॥ हे भारत ! इन दोनों सेनाओंके बीचमें उदास होकर बैठे हुए अर्जुनसे मुस्कराते हुए हृषीकेशने ये वन्नन कहे- श्रीभगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । गतासूनगतासूश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥११॥ श्रीभगवान बोले- तू शोक न करनेयोग्यका शोक करता है और पंडिताईके बोल बोलता है; परंतु पंडित मृत और जीवितोंका शोक नहीं करते । न त्वेवाहं जातु नासं न त्व नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥१२॥ क्योंकि वास्तवमें देखने पर, मैं, तू या ये राजा किसी कालमें नहीं थे अथवा भविष्यमें नहीं होंगे, ऐसा कुछ नहीं है। १२ देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र न मुह्यति ॥१३॥ देहधारीको जैसे इस शरीरमें कौमार, यौवन और २