! जराकी प्राप्ति होती है, वैसे ही अन्य देह भी मिलती है। उसमें बुद्धिमान पुरुषको मोह नहीं होता। १३ मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आयमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥१४॥ हे कौंतेय ! इंद्रियोंके स्पर्श सरदी, गरमी, सुख और दुःख देनेवाले होते हैं। वे अनित्य होते हैं, आते हैं और जाते है। उन्हें तू सह । १४ यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीर सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥१५॥ हे पुरुषश्रेष्ठ ! सुखदुःखमें सम रहनेवाले जिस बुद्धिमान पुरुषको ये विषय व्याकुल नही करते वह मोक्षके योग्य बनता है। १५ नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥१६॥ भसत्का अस्तित्व नहीं है और सत्का नाश नही । इन दोनोंका निर्णय ज्ञानियोंने जाना है। अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥१७।। जिससे यह अखिल जगत व्याप्त है, उसे त अवि- नाशी जान । इस अव्ययका नाश करनेमें कोई समर्थ नहीं है। १७
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