पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अनासक्तिबोग श्रीमगवान बोले- हे पार्थ ! जब मनुष्य मनमें उठती हुई समस्त कामनाओंका त्याग करता है और आत्माद्वारा ही आत्मामें संतुष्ट रहता है तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। ५५ टिप्पणी-आत्मासे ही आत्मामें संतुष्ट रहना अर्थात् आत्माका आनंद अंदरसे खोजना, सुख-दुःख देनेवाली बाहरी चीजोंपर आनंदका आधार न रखना। आनंद सुखसे भिन्न वस्तु है यह ध्यानमें रखना चाहिए । मुझे धन मिलनेपर मैं उसमें सुख मानूं यह मोह है । में भिखारी होऊ, भूखका दुःख होनेपर भी चोरी या दूसरे प्रलोभनोंमें न पड़नेमे जो बात मौजूद है वह भानंद देती है और वही आत्मसंतोष है। दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयकोधः स्थितधीर्मनिरुच्यते ॥५६॥ दुःखसे जो दुःखी न हो, सुखकी इच्छा न रखे मोर जो राग, भय और क्रोधसे रहित हो वह स्थिरबुद्धि मुनि कहलाता है। ५६ यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५७।। सर्वत्र रांगरहित होकर जो पुरुष शुभ या अशुभकी .