दूसरा अध्याय : सांख्ययोग %3D प्राप्तिमें न हर्षित होता है, न शोक करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। यदा संहरते चायं कर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५८॥ कछुआ जैसे सब ओरसे अंग मेट लेता है वैसे जब यह पुरुष इंद्रियोंको उनके विषयोंमेंसे समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर हुई कही जाती ५८ विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवजं रसोऽप्यस्य पर दृष्ट्वा निवर्तते ॥५९।। देहधारी निराहारी रहता है तब उसके विषय मंद पड़ जाते हैं। परंतु रस नहीं जाता । वह रस तो ईश्वरका साक्षात्कार होनेसे निवृत्त होता है। टिप्पणी-यह श्लोक उपवास आदिका निषेध नहीं करता, वरन उसकी सीमा सूचित करता है। विषयोंको शांत करनेके लिए उपवासादि आवश्यक हैं, परंतु उनकी जड़ अर्थात उनमें रहनेवाला रस तो ईश्वरकी झांकी होनेपर ही निवृत्त होता है । ईश्वर- साक्षात्कारका जिसे रस लग जाता है वह दूसरे रसोंको भूल ही जाता है।
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