पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वीसरा अध्याय: कर्मयोग बल्कि मिथ्याचारी है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि जबतक मन न रोका जा सके तबतक शरीरको रोकना निरर्थक है । शरीरको रोके बिना मनपर अंकुश आता ही नहीं। परंतु शरीरके अंकुशके साथ-साथ मनपर अंकुश रखनेका प्रयत्न होना ही चाहिए । जो लोग भय या ऐसे बाहरी कारणोंसे शरीरको रोकते हैं, परंतु मनको नहीं रोकते, इतना ही नहीं, बल्कि मनसे तो विषय भोगते हैं और मौका पानेपर शरीरसे भी भोगनेमें नहीं चूकते, ऐसे मिथ्याचारीकी यहां निंदा है। इसके आगेका श्लोक इससे उलटा भाव दरसाता यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७॥ परंतु हे अर्जुन ! जो इंद्रियोंको मनके द्वारा नियममें रखते हुए संगरहित होकर कर्म करनेवाली इंद्रियोंद्वारा कर्मयोगका आरंभ करता है वह श्रेष्ठ पुरुष हैं। टिप्पणी-इसमें बाहर और भीतरका मेल साधा गया है । मनको अंकुशमें रखते भी मनुष्य शरीर- द्वारा अर्थात कर्मेंद्रियोंद्वारा कुछ-न-कुछ तो करेगा ही; परंतु जिसका मन अंकुशमें है उसके कान दूषित बातें नहीं सुनेंगे, वरन ईश्वर-भजन सुनेंगे, सत्पुरुषोंकी