पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/५७

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तीसरा अध्याय:कर्मबोगं १७ यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥१७॥ पर जो मनुष्य आत्मामें रमण करनेवाला है, जो उसीसे तृप्त रहता है और उसीमें संतोष मानता है, उसे कुछ करनेको नहीं रहता। नव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।१८।। करने, न करने में उसका कुछ भी स्वार्थ नहीं है । भूतमात्रमें उसे कोई निजी स्वार्थ नहीं है। १८ तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥१९॥ इसलिए तू तो संगरहित रहकर निरंतर कर्तव्य कर्म कर । असंग रहकर ही कर्म करनेवाला पुरुष मोक्ष पाता है। १९ कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥२०॥ जनकादिकने कर्मसे ही परमसिद्धि प्राप्त की। लोकसंग्रहकी दृष्टिसे भी तुझे कर्म करना उचित है। २० यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥२१॥ जो-जो आचरण उत्तम पुरुष करते हैं, उसका जनः।