पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/५६

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मनासक्तियोग - यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥१३॥ जो यज्ञसे उबरा हुआ खानेवाले है, वे सब पापोंसे छूट जाते हैं। जो अपने लिए ही पकाते हैं, वे पाप खाते हैं। अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥१४॥ अन्नमेंसे भूतमात्र उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षासे उत्पन्न होता है । वर्षा यज्ञसे होती है और यज्ञ कर्मसे होता है। कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगत ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।१५।। तू जान ले कि कर्म प्रकृतिसे उत्पन्न होता है, प्रकृति अक्षरब्रह्मसे उत्पन्न होती है और इसलिए सर्व- व्यापक ब्रह्म सदा यज्ञमें विद्यमान है। १५ एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्त्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥ इस प्रकार प्रवर्तित चक्रका जो अनुसरण नहीं करता, वह मनुष्य अपना जीवन पापी बनाता है, इंद्रियसुखोंमें फंसा रहता है और हे पार्थ ! वह व्यर्थ जीता है।