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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/७३

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बोया मण्याब: मानकर्मसंन्यासयोग ५२ यज्ज्ञात्वा एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वेः पूर्वतरं कृतम् ॥१५॥ ऐसे जानकर पूर्वकालमें मुमुक्षु व्यक्तियोंने कर्म किये हैं। इससे तू भी पूर्वज जैसे सदासे करते आये हैं वैसे कर। किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१६॥ कर्म क्या है, अकर्म क्या है, इस विषयमें समझ- दारोंको भी मोह हुआ है । उस कर्मके विषयमें मैं तुझे यथार्थरूपसे बतलाऊंगा। उसे जानकर तू अशुभसे १६ कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।।१७।। कर्म, निषिद्धकर्म और अकर्मका भेद जानना चाहिए । कर्मकी गति गूढ़ है। कर्मण्यकर्म यः पश्यदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥१८॥ कर्ममें जो अकर्म देखता है और अकर्म में जो कर्म देखता है, वह लोगोंमें बुद्धिमान गिना जाता है । वह योगी है और वह संपूर्ण कर्म करनेवाला है। १८ बचेगा।