पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/७४

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मनासक्तियोग टिप्पड़ी-कर्म करते हुए भी जो कर्तापनका अभि- मान नहीं रखता, उसका कर्म अकर्म है, और जो कर्मका बाहरसे त्याग करते हुए भी मनके महल बनाता ही रहता है, उसका अकर्म कर्म है। जिसे लकवा हो गया है वह जब इरादा करके--अभिमानपूर्वक-बेकार हुए अंगको हिलाता है, तब हिलता है। वह बीमार अंगको हिलानेरूपी क्रियाका कर्ता बना। आत्माका गुण अकर्ता- का है। मोहग्रस्त होकर अपनेको कर्ता माननेवाले आत्माको मानो लकवा हो गया है और वह अभिमानी होकर कर्म करता है। इस भांति जो कर्मकी गतिको जानता है, वही बुद्धिमान योगी कर्तव्यपरायण गिना जाता है । 'मैं करता हूं' यह माननेवाला कर्म-विकर्म का भेद भूल जाता है और साधनके भले-बुरेका विचार नहीं करता। आत्माकी स्वाभाविक गति ऊर्ध्व है, इसलिए जब मनुष्य नीति-मार्गसे हटता है तब यह कहा जाना चाहिए कि उसमें अहंकार अवश्य है। अभिमानरहित पुरुषके कर्म स्वभावसे ही सात्त्विक होते हैं। यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवजिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥१९॥ जिसके समस्त आरंभ कामना और संकल्परहित -