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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/७६

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अनासक्तियोग हुए मनुष्यका शरीरभर ही कर्म करता है, यह कहा जा सकता है । जो कैदी विवश होकर अनिच्छासे हल चलाता है, उसका शरीर ही काम करता है। जो अपनी इच्छासे ईश्वरका कैदी बना है, उसका भी शरीरभर ही काम करता है। खुद तो शून्य बन गया है, प्रेरक ईश्वर है। यदृच्छालाभसतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।।२२।। जो यथालाभसे संतुष्ट रहता है, जो सुख-दुःखादि द्वंद्वोंसे मुक्त हो गया है, जो द्वेषरहित हो गया है, जो सफलता, निष्फलतामें तटस्थ है, वह कर्म करते हुए भी बंधनमें नहीं पड़ता है। २२ गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥२३॥ जो आसक्तिरहित है, जिसका चित्त ज्ञानमय है, जो मुक्त है और जो यज्ञार्थ ही कर्म करनेवाला है, उसके सारे कर्म लय हो जाते हैं। २३ ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥२४॥ (यज्ञमें) अर्पण ब्रह्म है, हवनकी वस्तु--हवि ब्रह्म है, ब्रह्मरूपी अग्निमें हवन करनेवाला भी ब्रह्म है;