सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६४ मनासक्तियोग टिप्पनी--अर्थात् परमात्मामें तन्मय हो जाते हैं । द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रता ॥२८॥ इस प्रकार कोई यज्ञार्थ द्रव्य देनेवाले होते हैं; कोई तप करनेवाले होते हैं। कितने ही अष्टांग योग साधनेवाले होते हैं । कितने ही स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ करते हैं। ये सब कठिन व्रतधारी प्रयत्नशील याज्ञिक २८ अपाने जुह्वति प्राणं प्राणपानं तथापरे । प्राणापानगती रुद्ध्ना प्राणायामपरायणा ॥२९।। कितने ही प्राणायाममें तत्पर रहनेवाले अपानको प्राणवायुमें होमते हैं, प्राणको अपानमें होमते हैं अथवा प्राण और अपान दोनोंका अवरोध करते हैं। २९ टिप्पती--ये तीन प्रकारके प्राणायाम हैं--रेचक, पूरक और कुंभक । संस्कृतमें प्राणवायुका अर्थ गुजराती- (और हिंदी)की अपेक्षा उलटा है। वहा प्राणवायु अंदरसे बाहर निकलनेवाली वायुको कहते हैं। हम बाहरसे जिसे अंदर खींचते हैं उसे प्राणवायु (आक्सीजन) कहते हैं। अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति । सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥३०॥