पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/७९

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चौमा प्रध्याय :शानकर्मसंन्यासयोग इसके सिवा दूसरे आहारका संयम करके प्राणोंको प्राणमें होमते हैं । यज्ञोंद्वारा अपने पापोंको क्षीण करने- वाले ये सब यज्ञके जाननेवाले हैं। ३० यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥३१॥ हे कुरुसत्तम ! यज्ञसे बचा हुआ अमृत खानेवाले लोग सनातन ब्रह्मको पाते हैं। यज्ञ न करनेवालेके लिए यह लोक नहीं है तो परलोक तो हो ही कहांसे सकता है ? ३१ एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान्विद्धि तान्सनिवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥३२॥ इस प्रकार वेदमें अनेक प्रकारके यज्ञोंका वर्णन हुआ है। इन सबको कर्मसे उत्पन्न हुआ जान । इस प्रकार सबको जानकर तू मोक्ष पावेगा। ३२ टिप्पणी--यहां कर्मका व्यापक अर्थ है। अर्थात शारीरिक, मानसिक और आत्मिक । ऐसे कर्मके बिना यज्ञ नहीं हो सकता। यज्ञ बिना मोक्ष नहीं होता। इस प्रकार जानना और तदनुसार आचरण करना, इसका नाम यज्ञोंका जानना है । तात्पर्य यह कि मनुष्य अपने शरीर, बुद्धि और आत्माको प्रभुप्रीत्यर्थ-लोक सेवार्थ काममें न लावे तो वह चोर ठहरता है और ५