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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/८८

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मनासक्तियोग फलमें फंसकर बंधनमें रहता है। १२ सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥१३॥ संयमी पुरुष मनसे सब कर्मोंका त्याग करके नव- द्वारवाले नगररूपी शरीरमें रहते हुए भी, कुछ न करता, न कराता हुआ सुखसे रहता है । १३ टिप्पणी--दो नाक, दो कान, दो आंखें, मल- त्यागके दो स्थान और मुख, शरीरके ये नौ मुख्य द्वार हैं। वैसे तो त्वचाके असंख्य छिद्रमात्र दरवाजे ही है । इन दरवाजोंका चौकीदार यदि इनमें आने-जाने- वाले अधिकारियोंको ही आने-जाने देकर अपना धर्म पालता है तो उसके लिए कहा जा सकता है कि वह, यह आवा-जाही होते रहनेपर भी, उसका हिस्सेदार नहीं, बल्कि केवल साक्षी है, इससे वह न करता है, न कराता है। न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥१४॥ जगतका प्रभु न कर्तापनको रचता है, न कर्म रचता है, न कर्म और फलका मेल साधता है । प्रकृति ही सब करती है। १४ टिप्पणी-ईश्वर कर्ता नहीं है । कर्मका नियम न