पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/८७

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पांचवां अध्याय : कर्मसंन्यासयोग टिप्पनी-जबतक अभिमान है तबतक ऐसी अलिप्त स्थिति नहीं आती। अतः विषयासक्त मनुष्य यह । कहकर छूट नहीं सकता कि 'विषयोंको मैं नहीं भोगता, इंद्रियां अपना काम करती हैं।' ऐसा अनर्थ करनेवाला न गीताको समझता है और न धर्मको जानता है । यह बात नीचेका श्लोक स्पष्ट करता है। ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥१०॥ जो मनुष्य कर्मोको ब्रह्मार्पण करके आसक्ति छोड़कर आचरण करता है वह पापसे उसी तरह अलिप्त रहता है जैसे पानीमें रहनेवाला कमल अलिप्त रहता है। १० कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥११॥ शरीरसे, मनसे, बुद्धिसे या केवल इंद्रियोंसे भी योगीजन आसक्तिरहित होकर आत्मशुद्धिके लिए कर्म करते है। ११ युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥१२॥ समतावान कर्मफलका त्याग करके परमशांति पाता है। अस्थिरचित्त कामनायुक्त होनेके कारण