पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/९

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ग्याए है वहां कर्म तो है ही। उसमेंसे कोई मुक्त नहीं है, तथापि वेहको प्रमुका मंदिर बनाकर उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है, यह सब धर्मोने प्रतिपादन किया है। परंतु कर्ममात्रमें कुछ दोष तो है ही, मुक्ति तो निर्दोषकी ही होती है । तब कर्मबंधनसे अर्थात् दोषस्पर्शमसे कैसे छुटकारा हो? इसका जवाब गीताजीने निश्चयात्मक शब्दोंमें दिया है-"निष्काम कर्मसे, यज्ञार्थ कर्म करके, कर्मफलत्याग करके, सब कमोको कृष्णार्पण करके, अर्थात् मन, वचन और कायाको ईश्वरमें होम करके ।" पर निष्कामता, कर्मफलत्याग कहनेभरसे नहीं हो जाता । यह केवल बुद्धि का प्रयोग नहीं है। यह हृदयमथनसे ही उत्पन्न होता है । यह त्याग- शक्ति पैदा करनेके लिए शान चाहिए । एक प्रकारका ज्ञान तो बहुतेरे पंडित पाते हैं । वेदादि उन्हें कंठ होते हैं; परंतु उनमेंसे अधिकांश भोगादि- में लगे-लिपटे रहते हैं। ज्ञानका अतिरेक शुष्क पाडित्यके रूपमें न हो जाय, इस खयालसे गीताकारने शानके साथ भक्तिको मिलाया और उसे प्रथम स्थान दिया। बिना भक्तिका शान हानिकर है। इसलिए कहा गया, "भक्ति करो तो ज्ञान मिल ही जायगा।" पर भक्ति तो 'सिरका सौदा' है, इसलिए गीताकारने भक्तके लक्षण स्थितप्रझकेसे बतलाये हैं। तात्पर्य, गीताकी भक्ति बाह्याचारिता नही है, अंधश्रद्धा नहीं है गीतामें बताये उपचारका बाह्य चेष्टा या क्रियाके साथ कम-से-कम संबंध है। माला, तिलक, प्रादि साधन भले ही भक्त बरते, पर वे भक्तिके लक्षण नहीं हैं। जो किसीका द्वेष नहीं करता, जो करुणाका भंडार है और ममतारहित है, जो निरहंकार है, जिसे सुख-दुःख, शीत-उष्ण समान हैं, जो क्षमाशील है, जो सदा संतोषी है, जिसके निश्चय कभी बदलते नही, जिसने मन भौर बुद्धि ईश्वरको मर्पण कर दिये हैं, जिससे लोग उद्वेग नहीं पाते, जो लोगोंका भय नहीं रखता, जो हर्ष-शोक-भयादिसे मुक्त है, जो पवित्र है, जो कार्यदक्ष होनेपर भी तटस्थ है, जो शुभाशुभका स्थान