पांचवां मम्माम कर्मसंन्यासयोग जिनका मन समत्वमें स्थिर हो गया है उन्होंने इस देहमें रहते ही संसारको जीत लिया है। ब्रह्म निष्क- लंक और समभावी है, इसलिए वे ब्रह्ममें ही स्थिर होते हैं। टिप्पक्षी--मनुष्य जैसा और जिसका चिंतन करता है वैसा हो जाता है। इसलिए समत्वका चिंतन करके, दोषरहित होकर, समत्वके मूर्तिरूप निर्दोष ब्रह्म को पाता है। न प्रहृष्यत्प्रिय प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धि रस मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ।।२०॥ जिसकी बुद्धि स्थिर हुई है, जिसका मोह नष्ट हो गया है, जो ब्रह्मको जानता है और ब्रह्मपरायण रहता है, वह प्रियको पाकर सुख नहीं मानता और अप्रियको पाकर दुःखका अनुभव नहीं करता २० बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् । ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥२१॥ बाह्य विषयोंमें आसक्ति न रखनेवाला पुरुष अपने अंतःकरणमें जो आनंद भोगता है वह अक्षय आनंद पूर्वोक्त ब्रह्मपरायण पुरुष अनुभव करता है। २१ स
पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/९१
दिखावट