पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अनासक्तियोन ४ वह दिखावेके लिए कुछ नहीं करता। (अध्याय ३, ४ अध्याय ५, २ से मिलाइए) यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥४॥ जब मनुष्य इंद्रियोंके विषयोंमें या कर्ममें आसक्त नहीं होता और सब संकल्प तज देता है तब वह योगा- रूढ़ कहलाता है। उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ५ ॥ आत्मासे मनुष्य आत्माका उद्धार करे, उसकी अधोगति न करे। आत्मा ही आत्माका बंधु है और आत्मा ही आत्माका शत्रु है । ५ बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥६॥ उसीका आत्मा बंधु है जिसने अपने बलसे मनको जीता है। जिसने आत्माको जीता नहीं वह अपने ही साथ शत्रुका-सा बर्ताव करता है। जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्णसुखदुःखेषु मानापमानयोः ॥ ७॥ जिसने अपना मन जीता है और जो संपूर्ण रूपसे शांत हो गया है उसका आत्मा सरदी-गरमी, सुख- दुःख और मान-अपमानमें समान रहता है। तथा