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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/९९

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का प्रयाय : मानयोग Ć ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥८॥ जो ज्ञान और अनुभवसे तृप्त हो गया है, जो अवि- चल है, जिसने इंद्रियोंको जीत लिया है और जिसे मिट्टी, पत्थर और सोना समान है, ऐसा ईश्वरपरा- यण मनुष्य योगी कहलाता है। सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थ द्वेष्यबन्धुषु साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धि विशिष्यते ॥९॥ हितेच्छु, मित्र, शत्रु, निष्पक्षपाती, दोनोंका भला चाहनेवाला, द्वेषी, बंधु और साधु तथा पापी इन सबमें जो समानभाव रखता है वह श्रेष्ठ है। योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥१०॥ चित्त स्थिर करके, वासना और संग्रहका त्याग करके, अकेला एकांतमें रहकर योगी निरंतर आत्माको परमात्माके साथ जोड़े। शुचौ देशे . प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥११॥ तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥१२॥ पवित्र स्थानमें, न बहुत नीचा, न बहुत ऊंचा .