की इच्छा नहीं है कि मेरी यह रचना---जिसमें मेरे हृदय का समस्त रस (जैसा भी कुछ हो) भरा है---प्रकाशकों के घर मे कुलवधू का आदर और अलङ्कार पावेगी। फिर भी मुझे इतना
सन्तोष है कि मैं इसे अच्छे से अच्छे प्रकाशक के हाथ मे सौप
सका हूँ।
मै समझता हूँ कि हिन्दी मे यह अपने ढंग की निराली शैली की रचना है। जब मैने इसे लिखना शुरू किया था तो मैंने इसे 'बावले की बड़' समझा था। सबसे प्रथम मैंने 'अनुताप' लिखा था। पर किसी को दिखाया नहीं, देर तक वह छिपा रक्खा था। एकाएक वह कागज मेरी स्त्री के हाथ पड़ा वे उसे हाथ मे ले मेरे पास आईं। मै सिटपिटा गया। मेरी ऐसी धारणा थी कि स्त्रियाँ स्वभाव ही से बहमी होती हैं और वे उपन्यास के मूल मे सच्चाई का कुछ सन्देह अवश्य करती है। परन्तु मेरा भय निर्मूल था---उन्होंने गद्गद् कण्ठ से मेरी उस रचना को सराहा। उसके बाद डरते डरते मैंने उन्हें 'रूप' दिखाया उसे पढ़कर उन्होंने कुछ कहा नहीं, प्रशंसा से उत्फुल्ल नेत्रों से मेरी ओर देख कर चली गईं। वह मेरी प्रथम आलोचका थीं। उसके बाद जिन २ मित्रों को दिखाया---फड़क गये। मुझे साहस हुआ या धृष्टता---सो कुछ नहीं कह सकता, मैंने यह तो रचना है और बढ़िया रचना है। मैंने उसे तब साहित्य-चटोरों को दिखाया सभी की जीभ चटखारे लेने लगी।